चमन को हम साजाये बैठे हैं,
जान की बाज़ी लगाये बैठे हैं.
तुम को मालूम ही नहीं शायद,
दुश्मन नज़रे गडाये बैठे हैं.
सलवटें बिस्तरों पे रहे कायम,
नींदे तो हम गवांये बैठें हैं
फ़ूल लाये हो तो गैर को दे दो,
हम तो दामन जलाये बैठे हैं.
मयकदे जाते तो गुनाह भी था,
बिन पिये सुधबुध गवांये बैठे हैं.
सच न कह्ता तो शायद बेह्तर था,
सुन के सच मूंह फ़ुलाये बैठे हैं.
8 comments:
Leoji,hameshaki tarah gazab dhaya hai...wah!Harek pankti lajawab!
अच्छी रचना ........
Hi..
Wah kya gazal hai..
DEEPAK SHUKLA..
सच न कह्ता तो शायद बेह्तर था,
सुन के सच मूंह फ़ुलाये बैठे हैं.
सच कौन बर्दास्त करता है? अच्छी ग़ज़ल
behtreen.......lajawaab.
सच ना कहते तो ठीक था ..सुन कर मुंह फुलाये बैठे हैं ...
सच जल्दी हज़म नहीं होता ...मुझे भी ...:)
@ वाणी गीत जी, आप नीचे लिंक पर दी गई कविता पढें शायद ये "लवण भाष्कर चूर्ण" का कार्य करें!
http://sachmein.blogspot.com/2010/05/blog-post_6392.html
...बहुत सुन्दर ... लाजवाब रचना/गजल !!!!
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