कैसे किसी की वफ़ा का दावा करे कोई,
शोएब है कोई तो, है आयशा कोई|
जिस्मों की नुमाइश है यहां,रिश्तों की हाट में ,
खुल के क्यों न जज़बातो, का सौदा करे कोई!
खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई|
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एक और नाज़ुक ख्याल देखें,नीचे दिये लिंक पर:
शायद इसी लिये!
http://sachmein.blogspot.com/2010/04/blog-post_10.html
6 comments:
बहुत खूब....सही कहा है.
अच्छी रचना है परन्तु विराम चिन्ह का उपयोग ध्यान से करना होगा...
खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई|
खुद परस्ती ...
सच में इंसान अपने अलावा कुछ और नही सोच सहता ... बहुत ग़ज़ब के शेर ...
... बहुत सुन्दर!!
जिस्मों की नुमाइश है यहां,रिश्तों की हाट में ,
खुल के क्यों न जज़बातो, का सौदा करे कोई!
खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई|
बहुत उम्दा.
Leoji,
Aapka andaze bayan waqayi kuchh aurhi hai! Bahut khoob...
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