बच्चे का मोह, उसका भविष्य माँ को सारी ताकत देता है......हाँ क्षणांश की व्यथा(जो कीती भयानक होती है!) बहुत कुछ कर गुजरने पर विवश करती है! आग से जलना, या आत्महत्या कोई खेल नहीं........
Sunday, November 29, 2009
Thursday, November 26, 2009
Wednesday, November 25, 2009
आम ऒ खास का सच! ( सिर्फ़ "कविता" पर)
मेरा ये विश्वास के मैं एक आम आदमी हूं,
अब गहरे तक घर कर गया है,
ऐसा नहीं के पहले मैं ये नहीं जानता था,
पर जब तब खास बनने की फ़िराक में,
या यूं कहिये सनक में रह्ता था,
यह कोई आर्कमिडीज़ का सिधांत नही है,
कि पानी के टब में बैठे और मिल गया!
मैने सतत प्रयास से ये जाना है कि,
किसी आदमी के लिये थोडा थोडा सा,
"आम आदमी" बने रहना,
नितांत ज़रूरी है!
क्यों कि खास बनने की अभिलाषा और प्रयास में,
’आदमी ’ का ’आदमी’ रह जाना भी
कभी कभी मुश्किल हो जाता है,
आप नहीं मानते?
तो ज़रा सोच कर बतायें!
’कसाब’,’कोडा’,’अम्बानी’,’ओसामा’,..........
’हिटलर’ .......... ......... ........
..... ......
आदि आदि,में कुछ समान न भी हो
तो भी,
ये आम आदमी तो नहीं ही कहलायेंगे,
आप चाहे इन्हे खास कहें न कहें!
पर!
ये सभी, कुछ न कुछ गवां ज़रुर चुके हैं ,
कोई मानवता,
कोई सामाजिकता,
कोई प्रेम,
कोई सरलता,
कोई कोई तो पूरी की पूरी इंसानियत!
और ये भटकाव शुरू होता है,
कुछ खास कर गुज़रने के "अनियन्त्रित" प्रयास से,
और ऐसे प्रयास कब नियन्त्रण के बाहर
हो जाते हैं पता नहीं चलता!
इनमें से कुछ की achivement लिस्ट भी
खासी लम्बी या impressive हो सकती है,
पर चश्मा ज़रा इन्सानियत का लगा कर देखिये तो सही,
मेरी बात में त्तर्क नज़र आयेगा!
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Tuesday, November 24, 2009
जल उठी" शमा....!"
शामिले ज़िन्दगीके चरागों ने
पेशे खिदमत अँधेरा किया,
मैंने खुदको जला लिया!
रौशने राहोंके ख़ातिर ,
शाम ढलते बनके शमा!
मुझे तो उजाला न मिला,
सुना, चंद राह्गीरोंको
हौसला ज़रूर मिला....
अब सेहर होनेको है ,
ये शमा बुझनेको है,
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?
पेशे खिदमत अँधेरा किया,
मैंने खुदको जला लिया!
रौशने राहोंके ख़ातिर ,
शाम ढलते बनके शमा!
मुझे तो उजाला न मिला,
सुना, चंद राह्गीरोंको
हौसला ज़रूर मिला....
अब सेहर होनेको है ,
ये शमा बुझनेको है,
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?
Saturday, November 21, 2009
रुत बदल दे !
दरख्त का सच!
मैने एक कोमल अंकुर से,
मजबूत दरख्त होने तक का
सफ़र तय किया है.
जब मैं पौधा था,
तो मेरी शाखों पे,
परिन्दे घोंसला बना ,कर
ज़िन्दगी को पर देते थे.
नये मौसम, तांबई रंग की
कोपलों को हरी पत्तियों में
बदल कर उम्मीद की हरियाली फ़ैलाते थे.
मैने कई प्रेमियों को अपनी घनी छांव के नीचे
जीवनपर्यंत एक दूजे का साथ देने की कसम खाते सुना है.
पौधे से दरख्त बनना एक अजीब अनुभव है!
मेरे "पौधे पन" ने मुझे सिखाया था,
तेज़ आंधी में मस्ती से झूमना,
बरसात में लोगो को पनाह देना,
धूप में छांव पसार कर थकान मिटाना.
अब जब से मैं दरख्त हो गया हूं,
ज़िंदगी बदल सी गई है.
मेरा रूप ही नहीं शायद,
मेरा चरित्र भी बदल गया है.
नये मौसम अब कम ही इधर आतें है,
मेरे लगभग सूखे तने की खोखरों में,
कई विषधर अपना ठिकाना बना कर
पंछियों के अंडो की तलाश में,
जीभ लपलपाते मेरी छाती पर लोटते रहते हैं.
आते जाते पथिक
मेरी छाया से ज्यादा,मेरे तने की मोटाई आंक कर,
अनुमान लगाते है कि मै,
कितने क्यूबिक ’टिम्बर’ बन सकता हूं?
कुछ एक तो ऐसे ज़ालिम हैं,
जो मुझे ’पल्प’ में बदल कर,
मुझे बेजान कागज़ बना देने की जुगत में हैं.
कभी कभी लगता है,
इससे पहले कि, कोई तूफ़ान मेरी,
कमज़ोर पड गई जडों को उखाड फ़ेकें,
या कोई आसमानी बिजली मेरे
तने को जला डाले,
और मै सिर्फ़ चिता का सामान बन कर रह जाऊं,
कागज़ में बदल जाना ही ठीक है.
शायद कोई ऐसा विचार,
जो ज़िंदगी के माने समझा सके,
कभी तो मुझ पर लिखा जाये,
और मैं भी ज़िन्दगी के
उद्देश्य की यात्रा का हिस्सा हो सकूं.
और वैसे भी, देखो न,
आज कल ’LG,Samsung और Voltas
के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?
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Thursday, November 19, 2009
पीछेसे वार मंज़ूर नही...
अँधेरों इसके पास आना नही,बुझनेपे होगी,"शमा"बुझी नही,
बुलंद एकबार ज़रूर होगी,
मत आना चपेट में इसकी,
के ये अभी बुझी नही!
दिखे है, जो टिमटिमाती,
कब ज्वाला बनेगी,करेगी,
बेचिराख,इसे ख़ुद ख़बर नही!
उठेगी धधक , बुझते हुएभी,
इसे पीछेसे वार मंज़ूर नही!
कोई इसका फानूस नही,
तेज़ हैं हवाएँ, उठी आँधी,
बताओ,है शमा कोई ऐसी,
जो आँधीयों से लड़ी नही?
ऐसी,जो आजतक बुझी नही?
सैंकडों जली,सैंकडों,बुझी!
हुई बदनाम ,गुमनाम कभी,
है शामिल क़ाफ़िले रौशनी ,
जिन्हें,सदियों सजाती रही!
एक बुझी,तो सौ जली॥!
चंद माह पूर्व की रचना है..
सच गुनाह का!
तेरा काजल जो
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.
क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!
क्या दर्द के लम्हों से मसरर्त
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,
गर नही!तो,
’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’
Wednesday, November 18, 2009
अपना बल...
नीड़ के निर्माण में,
कभी तूफ़ान में , कभी गर्म थपेडों में...
कभी अनजानी राहों से...
कभी दहशत ज़दा रास्तों से...
माँ से अधिक तिनके उठाए नन्हें चिडों ने...
देने का तो नाम था...
उस देय को पाने के नाम पे...
एक बार नहीं सौ बार शहीद हुए॥
शहादत की भाषा भी नन्हें चिडों ने जाना॥
समय की आंधी में बने सशक्त पंखो को...
फैलाया माँ के ऊपर...
माँ सा दर्द लेकर सीने में॥
युवा बना नन्हा चिड़ा...
झांकता है नीड़ से बाहर,
डरता है माँ चिडिया के लिए...
"शिकारी के जाल के पास से दाना उठाना,
कितना खतरनाक होता है...
ऐसे में स्वाभिमान की मंजिल तक पहुँचने में...
जो कांटे चुभेंगे उसे कौन निकालेगा?"
चिडिया देखती है अपने चिडों को॥
उत्साह से भरती है, ख्वाब सजाती है, चहचहाती है...
"कुछ" उडानें और भरनी हैं...
यह "कुछ" अपना बल है...
फिर तो...
हम जाल लेकर उड़ ही जायेंगे...
Tuesday, November 17, 2009
खोयीसी बिरहन...
खोयीसी बिरहन जब
उस ऊँचे टीलेपे
सूने महल के नीचे
या फिर खंडहर के पीछे
गीत मिलन के गाती है,
पत्थर दिल रूह भी
फूट फूट के रोती है।
हर वफ़ा शर्माती है
जब गीत वफ़ाके सुनती है।
खेतोमे,खालिहानोमे
अंधेरोंमे याकि
चांदनी रातोमे
सूखे तालाब के परे
या नदियाकी मौजोंपे
कभी जंगल पहाडोंमे
मीलों फैले रेगिस्तानोमे
या सागरकी लहरोंपे
जब उसकी आवाज़
लहराती है,
हर लेहेर थम जाती है
बिजलियाँ बदरीमे
छुप जाती हैं
हर तरफ खामोशी ही
खामोशी सुनायी देती है।
मेरी दादी कहती है
सुनी थी ये आवाजें
उनकीभी दादीने॥
उस ऊँचे टीलेपे
सूने महल के नीचे
या फिर खंडहर के पीछे
गीत मिलन के गाती है,
पत्थर दिल रूह भी
फूट फूट के रोती है।
हर वफ़ा शर्माती है
जब गीत वफ़ाके सुनती है।
खेतोमे,खालिहानोमे
अंधेरोंमे याकि
चांदनी रातोमे
सूखे तालाब के परे
या नदियाकी मौजोंपे
कभी जंगल पहाडोंमे
मीलों फैले रेगिस्तानोमे
या सागरकी लहरोंपे
जब उसकी आवाज़
लहराती है,
हर लेहेर थम जाती है
बिजलियाँ बदरीमे
छुप जाती हैं
हर तरफ खामोशी ही
खामोशी सुनायी देती है।
मेरी दादी कहती है
सुनी थी ये आवाजें
उनकीभी दादीने॥
एक लड़की
एक लड़की -
हिदायतों, समझौतों का प्रतिरूप होती है
हँसने, बोलने, चलने मे
उसकी संरचना साथ होती है....
रातें, सुनसान रास्ते
सुरक्षित नही होते उसके वास्ते
"प्यार" की पैनी धार पर
कसौटी उसकी होती है
खरी उतरी तो ठीक
वर्ना अनगिनत उँगलियों का शिकार होती है..........
हर सुबह, हर मोड़
कटघरे-सी उसके आगे चलती है
प्रश्नों के जाल मे फँसे रहना
उसकी नियति होती है!
पर १६ कि उम्र,
हर हाल मे बसंत-सी आती है
बलखाती हवाएं
उस लड़की को बेबाक बना जाती है!
सारी रुकावटों से परे
उड़ान-ही-उड़ान होती है
सूरज से होड़ लेने की क्षमताएं
समुद्र की लहरों सी उठती चली जाती है
सुन्दरता सर चढ़ कर बोलती है
नजाकत रोने मे भी नज़र आती है!
यह वह मोड़ है
जहाँ वह दोराहे पर खड़ी होती है
आगे बढ़ते ही
या तो मिसाल बनती है
या- एक चर्चित कहानी बन कर रह जाती है!
शिक्षित होना कोई बड़ी बात नही
मोहक जाल मे फँस कर
वो आज भी कुर्बान होती है
"लड़की ही माँ होती है"
जैसे वाक्यों का कोई मूल्य नहीं होता -
माँ, बेटी, बहन, पत्नी से पहले
वह सिर्फ एक लड़की ही होती है....
Monday, November 16, 2009
Sunday, November 15, 2009
तन्हाई का सच! "कविता" पर!
कल रात सवा ग्यारह बजे,
मैं अचानक तन्हा हो गया!
एक दम तन्हा!
ऐसा नहीं के इस से पहले,
मुझे कभी मेरी तन्हाई का अहसास नहीं था!
पर कल रात मैने एक गलती की!
अपने Mobile की phone book को browse करने लगा!
दिल में आया कि देखूं कौन कौन वो लोग हैं,
जिन्हें गर अभी call करूं तो,
बिन अलसाये,बिन गरियाये(दिल में)
मेरी call लेगें (और खुश होगें!)
सच कह्ता हूं!
मैने इस से ज्यादा तन्हाई कभी मह्सूस नहीं की!
क्यों के एक भी Contact ऐसा नहीं था जिसे,
मैं बेधडक call कर सकूं,
एक Thursday evening को!
(कल एक working day है!)
सिर्फ़ ये कहने के लिये!
बहुत दिन हुये ’तुम से बात नहीं हुई’
और वो खुश हो के कहे,
"अच्छा लगा के तुमने याद किया!"
(झूंठ ही सही!!!!)
"सच में" कितना तन्हा हूं मैं!
और आप?
Thursday, November 12, 2009
सच बे उन्वान!
पलकें नम थी मेरी,
घास पे शबनम की तरह,
तब्बसुम लब पे सजा था,
किसी मरियम की तरह.
वो मुझे छोड गया ,
संगे राह समझ.
मै उसके साथ चला था,
हरदम, हमकदम की तरह.
वफ़ा मेरी कभी
रास न आई उसको,
वो ज़ुल्म करता रहा,
मुझ पे बेरहम की तरह.
फ़रिस्ता मुझको समझ के ,
वो आज़माता रहा,
मैं तो कमज़ोर सा इंसान
था आदम की तरह.
ख्वाब जो देके गया ,
वो बहुत हंसी है मगर,
तमाम उम्र कटी मेरी
शबे गम की तरह.
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ईमान,
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ख्वाब सच्चाई.,
ज़ख्म,
शिकवे
Wednesday, November 11, 2009
तुम मानसरोवर हो....
सुना है कभी
समुद्र नदी से मिलने गया
मोती की खोज
नदी में होने लगी?
मेरे सहयात्री,
नदी की पूर्णता तो समुद्र से है...
.ईश्वर ने तुम्हें मानसरोवर बनाया है
निःसंदेह,
तुम्हारे अन्दर मोती है
तुम्हे ज्ञात तो है,
फिर भी अनजान हो...
तो ईश्वर प्रदत्त सीप से जानो
जहाँ तुम्हारी कीमत है,पहचान है,
जहाँ लोगों की आँखें
विस्फारित हो जाती हैं!
मेरी मानो,
अपनी गहराई को
अपने मानवीकरण पर
सतही मत बनाओ
मोती पाने के लिए ज़िन्दगी दाव पर लगानी होती है
इसे समझो,
फिर सच तुम्हारे निकट होगा...
Monday, November 9, 2009
चश्मे नम मेरे....क्षणिका.
Saturday, November 7, 2009
ख़ूब नज़ारे थे!
क्या ख़ूब नज़ारे थे !
चश्मदीद गवाह बन गए,
अपनी ही मौत के,मारे गए,
बेमौत,वो कितने खुश हुए,
अर्थी में काँधे न लगे,
हम ज़िंदा लाश थे !
चश्मदीद गवाह बन गए,
अपनी ही मौत के,मारे गए,
बेमौत,वो कितने खुश हुए,
अर्थी में काँधे न लगे,
हम ज़िंदा लाश थे !
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गवाह.चश्म दीद,
ज़िंदगी,
नज़ारे,
मौत.
Tuesday, November 3, 2009
पेहचाना मुझे?
किसीके लिए हक़ीक़त नही,
तो ना सही!
हूँ मेरे माज़ीकी परछाई,
चलो, वैसाही सही!
जब ज़मानेने मुझे
क़ैद करना चाहा,
मै बन गयी एक साया,
पहचान मुकम्मल मेरी
कोई नही तो ना सही!
किसीके लिए...
रंग मेरे कई,
रूप बदले कई,
किसीकी हूँ सहेली,
तो किसीके लिए पहेली,
मुट्ठी मे बंद करले,
मै वो खुशबू नही,
किसीके लिए...
ज़रा याद करो सीता,
या महाभारतकी द्रौपदी!
इतिहासोंने सदियों गवाही दी,
मरणोत्तर खूब प्रशंसा की,
जिंदगीके रहते प्रताड़ना मिली ,
संघर्षोंमे हुई नही सुनवाई
किसीके लिए...
अब नही चाहिए प्रशस्ती,
नाही आसमानकी ऊँचाई,
जिस राह्पे हूँ निकली,
वो निरामय हो मेरी,
तमन्ना है बस इतनीही,
गर हो हासिल मुझे,
बस उतनीही ज़िंदगी...
किसीके लिए...
जलाऊँ अपने हाथोंसे ,
एक शमा झिलमिलाती,
झिलमिलाये जिससे सिर्फ़,
एक आँगन, एकही ज़िंदगी,
रुके एक किरन उम्मीद्की,
कुछ देरके लियेही सही,
किसीके लिए...
तो ना सही!
हूँ मेरे माज़ीकी परछाई,
चलो, वैसाही सही!
जब ज़मानेने मुझे
क़ैद करना चाहा,
मै बन गयी एक साया,
पहचान मुकम्मल मेरी
कोई नही तो ना सही!
किसीके लिए...
रंग मेरे कई,
रूप बदले कई,
किसीकी हूँ सहेली,
तो किसीके लिए पहेली,
मुट्ठी मे बंद करले,
मै वो खुशबू नही,
किसीके लिए...
ज़रा याद करो सीता,
या महाभारतकी द्रौपदी!
इतिहासोंने सदियों गवाही दी,
मरणोत्तर खूब प्रशंसा की,
जिंदगीके रहते प्रताड़ना मिली ,
संघर्षोंमे हुई नही सुनवाई
किसीके लिए...
अब नही चाहिए प्रशस्ती,
नाही आसमानकी ऊँचाई,
जिस राह्पे हूँ निकली,
वो निरामय हो मेरी,
तमन्ना है बस इतनीही,
गर हो हासिल मुझे,
बस उतनीही ज़िंदगी...
किसीके लिए...
जलाऊँ अपने हाथोंसे ,
एक शमा झिलमिलाती,
झिलमिलाये जिससे सिर्फ़,
एक आँगन, एकही ज़िंदगी,
रुके एक किरन उम्मीद्की,
कुछ देरके लियेही सही,
किसीके लिए...
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