Thursday, November 19, 2009

सच गुनाह का!

तेरा काजल जो 
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.

क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!

क्या दर्द के लम्हों से मसरर्त 
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,


गर नही!तो,


’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’

7 comments:

shama said...

Ishwar naa kare..kisee ko kajal kalank lage..!
Leoji..rachna padhte,padhte raungate khade ho gaye!

रश्मि प्रभा... said...

न्याय गर संगत नहीं तो सच में कैसा मुकदमा और किसका गुनाह?

vandan gupta said...

behtreen abhivyakti.

मनोज कुमार said...

अच्छी रचना। बधाई।

वाणी गीत said...

उचित प्रश्न है ...!!

वन्दना अवस्थी दुबे said...

’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?
वाह बहुत सुन्दर.

Dr. Amarjeet Kaunke said...

तेरा काजल जो

मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,

अब मुझे कलंक सा लगने लगा है....


bahut khooob