Monday, September 20, 2010

हर मन की"अनकही"!By 'Ktheleo'

मैं फ़ंस के रह गया हूं!
अपने
जिस्म,
ज़मीर,
ज़ेहन,
और
आत्मा 
की जिद्दोजहद में,

जिस्म की ज़रूरतें,
बिना ज़ेहन के इस्तेमाल,
और ज़मीर के कत्ल के,
पूरी होतीं नज़र नहीं आती!

ज़ेहन के इस्तेमाल,
का नतीज़ा,
अक्सर आत्मा पर बोझ 
का कारण बनता लगता है!

और ज़मीर है कि,
किसी बाजारू चीज!, की तरह,
हर दम बिकने को तैयार! 

पर इस कशमकश ने,
कम से कम 
मुझे,
एक तोहफ़ा तो दिया ही है!

एक पूरे मुकम्मल "इंसान"की तलाश का सुख!

मैं जानता हूं,
एक दिन,
खुद को ज़ुरूर ढूंड ही लूगां!

वैसे ही!
जैसे उस दिन,
बाबा मुझे घर ले आये थे,
जब मैं गुम गया था मेले में! 


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10 comments:

शारदा अरोरा said...

कशमकश को बेहतरीन शब्दों में उतारा है , एक सच्चा कलाकार गम से नहीं वरना जीवन से ग़मों की बनिस्पत समझौता करता है ।

संजय भास्‍कर said...

मैं जानता हूं,
एक दिन,
खुद को ज़ुरूर ढूंड ही लूगां!

...हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ ! अति सुन्दर !

संजय भास्‍कर said...

सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

...ज़मीर है कि...किसी बाजारू चीज की तरह,
हरदम बिकने को तैयार!
......
बाबा मुझे घर ले आये थे,
जब मैं गुम गया था मेले में!
वाह
इन पंक्तियों में जैसे पूरी कविता का सार समेट दिया गया है...
बधाई.

दिगम्बर नासवा said...

जेहन ज़मीर और आत्मा की कशमकश में लिखी लाजवाब .. शशक्त रचना है ....

Unknown said...

वाह वाह

सन्न कर दिया आपकी कविता के मर्म ने......

अत्यन्त उत्तम पोस्ट !

shama said...

Aisi behtareen rachana ke liye mujhe alfaaz soojh nahi rahe! Jism ,jahan aur zameer kee kashmkash shayad hee kabhi itni khoobsoortee se bayan hui hogi!

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

आप सब को दिल से शुक्रिया, लफ़्ज़ कलाम बन जाते हैं जब काबिल पढने वालों से दाद मिलें!फ़िर से नवाजिश आप लोगों की!

वाणी गीत said...

ज़मीर , ज़िस्म और ज़ेहन ...
कशमकश को खूब बयाँ किया ..
जीतेगा आखिर ज़मीर ही ...!

पूनम श्रीवास्तव said...

Vah bahut sundar vicharon kee khubsurat abhivyakti.