ऐ खुदा,
हर ज़मीं को एक आस्मां देता क्यूं है?
उम्मीद को फ़िर से परवाज़ की ज़ेहमत!
नाउम्मीदी की आखिरी मन्ज़िल है वो।
हर आस्मां को कहकशां देता क्यूं है?
आशियानों के लिये क्या ज़मीं कम है?
आकाशगंगा के पार से ही तो लिखी जाती है,
कभी न बदलने वाली किस्मतें!
दर्द को तू ज़ुबां देता क्यूं है?
कितना आसान है खामोशी से उसे बर्दाश्त करना,
अनकहे किस्सों को बयां देता क्यूं है?
किस्से गम-ओ- रुसवाई का सबब होते है|
क्या ज़रूरत है,
तेरे इस तमाम ताम झाम की?
ज़िन्दगी!
बच्चे की मुस्कान की तरह
बेसबब!!
और
दिलनशीं!
भी तो हो सकती थी!
10 comments:
दर्द को तू ज़ुबां देता क्यूं है?
कितना आसान है खामोशी से उसे बर्दाश्त करना,
अनकहे किस्सों को बयां देता क्यूं है?
किस्से गम-ओ- रुसवाई का सबब होते है|
ज़िन्दगी...
बच्चे की मुस्कान की तरह
बेसबब..और..दिलनशीं..भी तो हो सकती थी!
वाह...बहुत खूबसूरत...
ईद की मुबारकबाद कुबूल फ़रमाएं.
बहुत सुन्दर और कंटीली नज़्म है ये
आखिर क्यूं.....
ईद मुबारक तहे दिल से
बहुत ही सुन्दर रचना है आपकी.
- विजय
दर्द को तू ज़ुबां देता क्यूं है?
कितना आसान है खामोशी से उसे बर्दाश्त करना,
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (13/9/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
मुश्किल ये है की जवाब पूछने भी उसकी के पास जाना पड़ेगा,और फिर वो जचाँ नहीं तो वापस भी नहीं आ सकते.. ये भी एक बेबसी है की यहीं गुजरा करना है ...
उम्दा अभिव्यक्ति ..
Sun le aiye khuda ke,itni khoobsoorat dua ya iltija tujhse phir kaun karega?
ज़िन्दगी!
बच्चे की मुस्कान की तरह
बेसबब!!
और
दिलनशीं!
भी तो हो सकती थी!
काश ऐसा हो पाता।
कितना आसान है खामोशी से उसे बर्दाश्त करना,
अनकहे किस्सों को बयां देता क्यूं है?
बहुत सुन्दर.
"ज़िन्दगी!
बच्चे की मुस्कान की तरह
बेसबब!!
और
दिलनशीं!
भी तो हो सकती थी!"
बहुत खूबसूरत अल्फ़ाज़।
सवाल उठाना...
जवाबों की राह में आगे बढ़ना है....
बेहतर.....
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