कितने' काश' लिए बैठे थे दिल में,
खामोश ज़ुबाँ, बिसूरते हुए मुँह में,
कब ,क्यो,किधर,कहाँ, कैसे,
इन सवालात घेरे में,
अपनी तो ज़िंदगानी घिरी,
अब, इधर, यहाँ यूँ,ऐसे,
जवाब तो अर्थी के बाद मिले,
क्या गज़ब एक कहानी बनी,
लिखी तो किसी की रोज़ी बनी,
ता-उम्र हम ने तो फ़ाक़े किए,
कफ़न ओढ़ा तो चांदी बनी...
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
12 comments:
हर 'काश ' में एक बेबसी है ,शायद पछतावा भी .तो काश छोडिये . आकाश को छू लीजिये .
बाद बर्बादी के गर उनका सलाम आया तो क्या ?
उठ चुकी अर्थी तो फिर उनका पयाम आया तो क्या ?
umda rachna.
umda rachna.
kashh ke ye kashh naa hota..... behad achhe shabdo ka umda prayog
jyotishkishore.blogspot.com
bahut vadhia.....
काश ............
पता नहीं क्यों ?
जब भी आपको पढता हूं............
दर्द का एक समन्दर मुझे घेर लेता है...........
वेदना की लहरें उत्ताल हो जाती हैं..........
ऐसा लगता है मानो.........
पीड़ा और कसक आपकी भाषा में इतने घुलमिल गए हैं कि अलग करना मुश्किल है.............
बहरहाल....... बहुत अच्छी कविता
अभिनन्दन आपका..............दिल से !
बहुत खूब...
अच्छा लगा पढ़कर...
ता-उम्र हम ने तो फ़ाक़े किए,
कफ़न ओढ़ा तो चांदी बनी..
लाजवाब !! कहानी बनी और लिखी तो किसी की रोजी बनी ! कितने भावार्थ हैं !!!
कितने' काश' लिए बैठे थे दिल में,
क्या गज़ब एक कहानी बनी,
लिखी तो किसी की रोज़ी बनी,
ता-उम्र हम ने तो फ़ाक़े किए,
कफ़न ओढ़ा तो चांदी बनी...
सुन्दर रचना ,
नये नये सोच और मुहावरों से गीतों और गजलों की दुनिया रोज आबाद हो रही है। आपका योगदान नई हलचल पैदा करता है ं कुछ धनक होती है जिनका इंतजार रहता है। कृप्या अपने डेशबोर्ड पर ये कुछ पते है जिन्हे जोड़कर आप उन तमाम लोगों तक पहुंच सकते हैं जो गीत और ग़ज़ल
के गांव बसा रहे हैं:
please add
http://anjuribhargeet.blogspot.com,
http://kumar.zahid.blogspot.com
क्या कहूं इस रचना के लिए...निशब्द हूँ.
'Kash' aisa main bhi likh pata :)
Jai hind...
Post a Comment