Tuesday, May 4, 2010

एक बार फ़िर "कविता" पर, बस कह दिया!

चमन को हम साजाये बैठे हैं,
जान की बाज़ी लगाये बैठे हैं.

तुम को मालूम ही नहीं शायद,
दुश्मन नज़रे गडाये बैठे हैं.

सलवटें बिस्तरों पे रहे कायम,
नींदे तो हम गवांये बैठें हैं

फ़ूल लाये हो तो गैर को दे दो,
हम तो दामन जलाये बैठे हैं.

मयकदे जाते तो गुनाह भी था,
बिन पिये सुधबुध गवांये बैठे हैं.

सच न कह्ता तो शायद बेह्तर था,
सुन के सच मूंह फ़ुलाये बैठे हैं.

8 comments:

shama said...

Leoji,hameshaki tarah gazab dhaya hai...wah!Harek pankti lajawab!

Unknown said...

अच्छी रचना ........

Deepak Shukla said...

Hi..

Wah kya gazal hai..

DEEPAK SHUKLA..

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सच न कह्ता तो शायद बेह्तर था,
सुन के सच मूंह फ़ुलाये बैठे हैं.

सच कौन बर्दास्त करता है? अच्छी ग़ज़ल

vandana gupta said...

behtreen.......lajawaab.

वाणी गीत said...

सच ना कहते तो ठीक था ..सुन कर मुंह फुलाये बैठे हैं ...
सच जल्दी हज़म नहीं होता ...मुझे भी ...:)

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

@ वाणी गीत जी, आप नीचे लिंक पर दी गई कविता पढें शायद ये "लवण भाष्कर चूर्ण" का कार्य करें!
http://sachmein.blogspot.com/2010/05/blog-post_6392.html

कडुवासच said...

...बहुत सुन्दर ... लाजवाब रचना/गजल !!!!