शामिले ज़िन्दगीके चरागों ने
पेशे खिदमत अँधेरा किया,
मैंने खुदको जला लिया!
रौशने राहोंके ख़ातिर ,
शाम ढलते बनके शमा!
मुझे तो उजाला न मिला,
सुना, चंद राह्गीरोंको
हौसला ज़रूर मिला....
अब सेहर होनेको है ,
ये शमा बुझनेको है,
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?
4 comments:
umda rachna.
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?
वाह क्या खूबसूरत ख्याल और अंदाज़ है,वाह!
अगर कुछ कहूं तो बस इतना ही के,
’तमाम शहर रौशन हो ये नही होगा,
पर शमा जले ये उसकी मज़बूरी है.’
पर रात लौट कर आती है......
शमा की याद आती है
sach hai ki raat mein jalne wala subah nahi dekhta par shama ki jaroorat har raat hoti hai.
dua rahegi aapki likhne ki jalan kabhi kam na ho...
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