तुम्हें याद होगा,
अपना, बचपन जब,
हम दोनों खिल उठते थे,
किसी फ़ूल की मानिन्द!
अकसर बे वजह,
पर कभी कही गर मिल जाता था.
कोई एक..
कभी तितली या मोर का पंख,
कभी अगरबत्ती का रैपर,
कभी नई डाक टिकट,
कभी इन्द्रधनुष देख कर,
और कभी कभी तो,
सिर्फ़
मेंढक की टर्र टर्र,
सुन कर ही हो जाता था!
ये कमाल
अरे कमाल ही तो है,
दो मानव मनो का पुल्कित हो जाना,
तुम्हें याद होंगी,
वो तपती दोपहरें,
जब वो शहतूत का पेड,
मगन होता था,
कोयल की बात में,और,
मैं और तुम चुरा लेते थे,
न जाने कितने पल,
उस गर्म लू की तपिश से,
उफ़्फ़!!!!
तुम्हारे चेहरे का वो
सुर्ख लाल हो जाना,
मुझे तो याद है,अब तक...!
और वो एक दिन,
जुलाई का,
शायद ’छब्बीस’ थी,
सावन के आने में
देर थी अभी,
पर तुम्हारे दर्द
के बादल,बरस गये थे,
क्यों रोईं थीं तुम,
जब कि मालूम था,कुछ नहीं बदलने वाला,
आज जब,ज़िन्दगी की शाम हैं,
जनवरी की तेरह,
मैने जला लिये हैं,
यादों के अलाव,
इस उम्मीद में कि
तपिश यादों की ही सही,
दे सके शायद कुछ सुकूँ,
वही गीली लकडियाँ
उसी शहतूत की,
धूआँ दे रही हैं,शायद,
और ये वजह है,मेरे आँसुओं की
और मैं फ़िर सोचता हूँ,
एक दम तन्हा,
क्यों रोईं थीं तुम उस दिन...........!
छब्बीस थी शायद, वो जुलाई की!
16 comments:
बहुत दिनों बाद इतनी नाज़ुक कविता बांचने को मिली
जय हिन्द !
वही गीली लकडियाँ
उसी शहतूत की,
धूआँ दे रही हैं,शायद,
और ये वजह है,मेरे आँसुओं की
और मैं फ़िर सोचता हूँ,
एक दम तन्हा,
क्यों रोईं थीं तुम उस दिन...........!
Kya kamaal kaa likhte hain aap!
सुंदर कविता बधाई
सुंदर कविता बधाई
Lovely poem... initial lines reminded me of ma childhood as well :)
शहतूत के माध्यम से गूढ़ अभिव्यक्ति से झकझोर कर रख दिया.
आपकी रचना स्मृतियों के धरातल को बेंधती हुई मर्म की गहराई को छूने के बाद गगन की ऊँचाइयों तक पहुँच गई है.
क्या कविता लिखी है भाई..बचपन याद आ गया...साथ खिले थे ..साथ चले थे..पर बचपन तक ही..उसके बाद तो गीली लकड़ियों का धुंए तक किसी औऱ कि उंगली पकड़ के पहुंचे थे हम तो......सरल बेहतरीन कविता दोस्त
और मैं फ़िर सोचता हूँ,
एक दम तन्हा,
क्यों रोईं थीं तुम उस दिन...........!
गूढ़ अभिव्यक्ति...
वही गीली लकडियाँ
उसी शहतूत की,
धूआँ दे रही हैं,शायद,
और ये वजह है,मेरे आँसुओं की
और मैं फ़िर सोचता हूँ,
एक दम तन्हा,
क्यों रोईं थीं तुम उस दिन...........!
सचमुच कुछ यादें कैसे आँखें भिगो जाती है । बेहद भाव प्रवण कविता ।
तुम्हें याद होंगी,
वो तपती दोपहरें,
जब वो शहतूत का पेड,
मगन होता था,
कोयल की बात में,और,
मैं और तुम चुरा लेते थे,
न जाने कितने पल,
उस गर्म लू की तपिश से
beeten lamhon ka sundar manbhawan chitran man ko bahut peeche dhakel le gaya...
Janamdin kee haardik shubhkamnayen!!
बहुत सुंदर !
दीपावली पर आपको और परिवार को हार्दिक मंगल कामनाएं !
सादर !
बहुत सुंदर !
दीपावली पर आपको और परिवार को हार्दिक मंगल कामनाएं !
सादर !
bahut khoob
रचना अच्छी बनी है।
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