इक बोझ-सा है मनमे,
उतारूँ कैसे?
कहने को बहुत कुछ है,
कहूँ कैसे?
वो अल्फाज़ कहाँसे लाऊं,
जिन्हें तू सुने?
वो गीत सुनाऊं कैसे,
जो तूभी गाए?
लिखा था कभी रेत पे,
हवा ले गयी उसे...
गीत लिखे थे पानी पे,
बहा गयी लहरें उन्हें!
ना कागज़ है, ना क़लम है,
दास्ताँ सुनाऊँ कैसे?
ख़त्म नही होती राहें,
मै संभालूँ कैसे?
इक बोझ-सा है मनमे,
उतारूँ कैसे?
8 comments:
कवि के लिए तो सबसे अच्छा माध्यम कविता ही है।
अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!
बहुत कश्मकश चल रही है ... मन के भावों को खूबसूरती से उकेरा है ...
लिखा था कभी रेत पे,
हवा ले गयी उसे...
बेशक रेत पर लिखे को हवा उड़ा ले जाये पर निशान तो बचे ही होंगे
सुन्दर भाव की रचना
गीत लिखे थे पानी पे,
बहा गयी लहरें उन्हें!
ना कागज़ है, ना क़लम है,
दास्ताँ सुनाऊँ कैसे?
जितनी तारीफ की जाए, कम है...
आप का बलाँग मूझे पढ कर अच्छा लगा , मैं भी एक बलाँग खोली हू
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
बोझ है दिल पर उतारूं कैसे । कविता में कह दिया उतर तो गया ही होगा । सुंदर प्रस्तुति ।
वाह बहुत अच्छे शब्दों से उतार कर अपने मन का बोझ पूछते हो उतारूँ कैसे ?
गीत लिखे थे पानी पे,
बहा गयी लहरें उन्हें!
ना कागज़ है, ना क़लम है,
दास्ताँ सुनाऊँ कैसे?
बहुत ही प्यारा...
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