Friday, May 14, 2010

’छ्ज्जा और मुन्डेर’ "कविता' पर भी!



कई बार 
शैतान बच्चे की तरह
हकीकत को गुलेल बना कर
उडा देता हूं, 
तेरी यादों के परिंद
अपने ज़ेहन की, 

मुन्डेरो से,

पर हर बार एक नये झुंड की
शक्ल में 
आ जातीं हैं और
चहचहाती हैं  


तेरी,यादें


और सच पूछो तो 

अब उनकी आवाज़ें
टीस की मानिन्द चुभती सी लगने लगीं है।


मैं और मेरा मन 
दोनो जानते हैं,
कि आती है
तेरी याद,
अब मुझे,ये अहसास दिलाने कि


तू नहीं है,न अपने 


छ्ज्जे पर 



और न मेरे आगोश में।


4 comments:

कडुवासच said...

... अदभुत ...!!!

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

कई बार शैतान बच्चे की तरह
हकीकत को गुलेल बना कर..उडा देता हूं,
तेरी यादों के परिंद...अपने ज़ेहन की..मुन्डेरो से,

पर हर बार एक नये झुंड की शक्ल में
आ जातीं हैं और चहचहाती हैं तेरी,यादें.....

शब्द वही होते हैं,
बस उन्हें पेश करने का सलीका ही
रचना को खास बना देता है....
हकीकत को गुलेल....यादों के परिंद...
ज़ेहन की..मुन्डेर....चहचहाती हुई यादें....
अभी सोचने दीजिये कि दाद के लिये
कुछ खास और खूबसूरत अल्फ़ाज़ मिल जाये
बिल्कुल इस कविता जैसे.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर रूपक लिए हैं....हकीकत की गुलेल, यादों के परिंदे....ज़ेहन की मुंडेर ...

अच्छी लगी रचना

shama said...

Alfazon ka istemaal itna mauzoom hota hai ki, stabdh kar deta hai..mujhe to saleeqese daad dena bhi nahi aata!