Friday, July 23, 2010

इंतेहा-ए-दर्द! "Kavita" पर!

दर्द को मैं ,अब दवा देने चला हूं,
खुद को ही मैं बद्दुआ देने चला हूं!

बेवफ़ा को फ़ूल चुभने से लगे थे,
ताज कांटो का उसे देने चला हूं!

मर गया हूं ये यकीं तुमको नहीं है, 
खुदकी मय्यत को कांधा देने चला हूं!

6 comments:

honesty project democracy said...

अच्छी भावनात्मक दर्द भरी प्रस्तुती ...

shama said...

मर गया हूं ये यकीं तुमको नहीं है,
खुदकी मय्यत को कांधा देने चला हूं!
Jaise apna hi bojh khud apne khandhon pe dhote hue ham jee rahe hon..behtareen rachana!

संजय भास्‍कर said...

दर्द भरी प्रस्तुती ...

Vinay said...

itnaa rosh ki ghazal jal rahi hai

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चाँद, बादल और शाम
गुलाबी कोंपलें
The Vinay Prajapati

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

मर गया हूं ये यकीं तुमको नहीं है,
खुदकी मय्यत को कांधा देने चला हूं!

वाह ! क्या बात है !

वाणी गीत said...

कांटे देने चले तो दर्द तो होगा ही ...
दर्द भरी रचना ..!